बाल एवं युवा साहित्य >> पंचतंत्र की प्रेरक कथाएं पंचतंत्र की प्रेरक कथाएंअनिल कुमार
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प्रस्तुत है विचार शक्ति को बढ़ाने वाली प्रेरक कथाएं...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सुनहरी चिड़िया और सुनहरे हंस
एक समय की बात है, जब राजस्थान प्रदेश में एक शक्तिशाली राजा राज्य करता
था। झीलों की नगरी में उसका भव्य राजमहल स्थित था। उन झीलों में से एक
उसके राजमहल के चारों ओर फैली थी, साथ ही वहां एक बेहद सुंदर बाग भी था।
उस झील में बहुत से सुनहरे हंस विचरा करते थे। ये सभी हंस रोजाना सोने का
एक पंख गिराया करते थे। राजा उन सभी पंखों को एकत्र करवाता और राजकोष में
जमा करवा देता।
एक दिन एक बड़ी-सी सुनहरी चिड़िया उड़ती हुई उस झील तक आ पहुंची और पेड़ की डाल पर बैठ चहचहाने लगी। झील का स्वच्छ-निर्मल पानी देख उसने उस झील में डेरा डालने की सोची। लेकिन हंसों से उस चिड़िया की मौजूदगी बर्दाश्त न हुई।
हंसों ने एक स्वर में पूछा, ‘‘तुम कौन हो ? यहां क्यों आई हो ? अच्छा होगा तुम यहां से चली जाओ, वरना हम तुम्हें मार डालेंगे।’’
दरअसल, उस झील में रहते हंसों को एक लम्बा अरसा हो चुका था। वे हर अनजान पक्षी से ऐसा ही दुर्व्यवहार करते थे। उनका मानना था कि इस झील पर केवल उन्हीं का अधिकार है।
सुनहरी चिड़िया बोली, ‘‘क्यों ? क्या यह झील राजा के इलाके में नहीं आती ?’’
‘‘जरूर आती थी,’’ हंसों ने उत्तर दिया, ‘‘पर अब नहीं। हमने यह स्थान राजा से खरीद लिया है। हमारी आज्ञा लिए बिना अब राजा भी यहां नहीं आ सकता। बात आई समझ में ! अब तुम यहां से चलती बनो।’’
बेचारी सुनहरी चिड़िया मन मसोस कर रह गई।
सुनहरी चिड़िया वहां से उड़कर बाग में आ पहुंची और राजा के आने का इंतजार करने लगी, जो वहां नित्य टहलने आया करता था। कुछ ही देर बाद अपने अंगरक्षकों के साथ राजा वहां आ पहुंचा, सुबह की सैर करने।
तब सुनहरी चिड़िया उड़कर राजा के पास पहुंचकर बोली, ‘‘महाराज ! मैं दूर देश से उड़कर आपकी इस सुंदर राजधानी में पहुंची हूं। मैं यहीं रहना चाहती हूं, लेकिन महल के पास वाली झील में रहने वाले हंसों ने मुझे वहां से भगा दिया। वे बहुत ही बदतमीज हैं, उनका कहना है कि वह झील उन्होंने आपसे खरीद ली है। मैंने उनसे कहा भी कि यह तो कोई बात करने का तरीका न हुआ, परन्तु वे बदतमीजी करने से बाज न आए।’’
यह सुनकर राजा के गुस्से की सीमा न रही। उसने सैनिकों को आदेश दिया कि उन धृष्ट हंसों का वध कर दिया जाए। उनकी हिम्मत कैसे हुई मेरे बारे में ऐसा कहने की।
सैनिक झील की ओर चल दिए।
एक वृद्ध हंस ने जब सैनिकों को नंगी तलवारें हाथ में लिए आते देखा तो वह तुरंत सारा माजरा समझ गया कि क्या होने वाला है। उसने सभी हंसों को एकत्र किया और कहा, ‘‘अब हमें किसी अन्य झील में ठिकाना बनाना होगा क्योंकि राजा के सैनिक हमें मारने के लिए आ रहे हैं।’’
पहले तो सभी हंस यह बात सुनकर मुस्करा दिए। उन्होंने सोचा कि सैनिक तो रोज ही आते हैं सोने के पंख एकत्र करने। लेकिन जब बुद्धि में स्थिति की गंभीरता समाई तो वृद्ध हंस की सलाह पर अन्य हंसों ने अमल किया और सैनिकों के वहां पहुंचने से पहले ही उड़ चले।
इधर एक अजनबी की सलाह मानने पर राजा पछताने लगा कि क्यों उसने सुनहरे हंसों को मारने की आज्ञा दी। अब उसे रोजाना सोने के पंख कैसे मिल पाएंगे। अपने बुरे स्वभाव के कारण सुनहरे हंस झील को छोड़कर जाने को विवश हो चुके थे।
सुनहरे हंसों के चले जाने के बाद राजा इतना निराश हुआ कि उसने उस सुनहरी चिड़िया को भी उस झील में रहने की अनुमति नहीं दी।
सीख-किसी अजनबी के कहे पर आंख मूंदकर विश्वास करना ठीक नहीं। साथ ही स्वभाव ऐसा घमंडी नहीं होना चाहिए, जैसा उन सुनहरे हंसों का था।
एक दिन एक बड़ी-सी सुनहरी चिड़िया उड़ती हुई उस झील तक आ पहुंची और पेड़ की डाल पर बैठ चहचहाने लगी। झील का स्वच्छ-निर्मल पानी देख उसने उस झील में डेरा डालने की सोची। लेकिन हंसों से उस चिड़िया की मौजूदगी बर्दाश्त न हुई।
हंसों ने एक स्वर में पूछा, ‘‘तुम कौन हो ? यहां क्यों आई हो ? अच्छा होगा तुम यहां से चली जाओ, वरना हम तुम्हें मार डालेंगे।’’
दरअसल, उस झील में रहते हंसों को एक लम्बा अरसा हो चुका था। वे हर अनजान पक्षी से ऐसा ही दुर्व्यवहार करते थे। उनका मानना था कि इस झील पर केवल उन्हीं का अधिकार है।
सुनहरी चिड़िया बोली, ‘‘क्यों ? क्या यह झील राजा के इलाके में नहीं आती ?’’
‘‘जरूर आती थी,’’ हंसों ने उत्तर दिया, ‘‘पर अब नहीं। हमने यह स्थान राजा से खरीद लिया है। हमारी आज्ञा लिए बिना अब राजा भी यहां नहीं आ सकता। बात आई समझ में ! अब तुम यहां से चलती बनो।’’
बेचारी सुनहरी चिड़िया मन मसोस कर रह गई।
सुनहरी चिड़िया वहां से उड़कर बाग में आ पहुंची और राजा के आने का इंतजार करने लगी, जो वहां नित्य टहलने आया करता था। कुछ ही देर बाद अपने अंगरक्षकों के साथ राजा वहां आ पहुंचा, सुबह की सैर करने।
तब सुनहरी चिड़िया उड़कर राजा के पास पहुंचकर बोली, ‘‘महाराज ! मैं दूर देश से उड़कर आपकी इस सुंदर राजधानी में पहुंची हूं। मैं यहीं रहना चाहती हूं, लेकिन महल के पास वाली झील में रहने वाले हंसों ने मुझे वहां से भगा दिया। वे बहुत ही बदतमीज हैं, उनका कहना है कि वह झील उन्होंने आपसे खरीद ली है। मैंने उनसे कहा भी कि यह तो कोई बात करने का तरीका न हुआ, परन्तु वे बदतमीजी करने से बाज न आए।’’
यह सुनकर राजा के गुस्से की सीमा न रही। उसने सैनिकों को आदेश दिया कि उन धृष्ट हंसों का वध कर दिया जाए। उनकी हिम्मत कैसे हुई मेरे बारे में ऐसा कहने की।
सैनिक झील की ओर चल दिए।
एक वृद्ध हंस ने जब सैनिकों को नंगी तलवारें हाथ में लिए आते देखा तो वह तुरंत सारा माजरा समझ गया कि क्या होने वाला है। उसने सभी हंसों को एकत्र किया और कहा, ‘‘अब हमें किसी अन्य झील में ठिकाना बनाना होगा क्योंकि राजा के सैनिक हमें मारने के लिए आ रहे हैं।’’
पहले तो सभी हंस यह बात सुनकर मुस्करा दिए। उन्होंने सोचा कि सैनिक तो रोज ही आते हैं सोने के पंख एकत्र करने। लेकिन जब बुद्धि में स्थिति की गंभीरता समाई तो वृद्ध हंस की सलाह पर अन्य हंसों ने अमल किया और सैनिकों के वहां पहुंचने से पहले ही उड़ चले।
इधर एक अजनबी की सलाह मानने पर राजा पछताने लगा कि क्यों उसने सुनहरे हंसों को मारने की आज्ञा दी। अब उसे रोजाना सोने के पंख कैसे मिल पाएंगे। अपने बुरे स्वभाव के कारण सुनहरे हंस झील को छोड़कर जाने को विवश हो चुके थे।
सुनहरे हंसों के चले जाने के बाद राजा इतना निराश हुआ कि उसने उस सुनहरी चिड़िया को भी उस झील में रहने की अनुमति नहीं दी।
सीख-किसी अजनबी के कहे पर आंख मूंदकर विश्वास करना ठीक नहीं। साथ ही स्वभाव ऐसा घमंडी नहीं होना चाहिए, जैसा उन सुनहरे हंसों का था।
लालची बूढ़ा सारस
एक बूढ़ा सारस नदी किनारे रहता था। वह सारस इतना वृद्ध हो चला था कि भरपेट
भोजन जुटा पाना भी उसको मुहाल हो गया था। मछलियां अगल-बगल से तैरकर निकल
जातीं, लेकिन कमजोर होने के कारण वह उन्हें पकड़ न पाता।
एक दिन वह स्वयं को बहुत भूखा महसूस कर रहा था, क्योंकि पिछले कुछ दिनों से उसे खाने को कुछ भी न मिला था। निराश होकर वह नदी किनारे बैठ गया और लगा रोने। एक केकड़ा वहां से गुजर रहा था। उसने सारस को रोते देख कारण पूछा।
तभी अचानक सारस के दिमाग में एक विचार कौंधा। उसने केकड़े को कुछ देर शांत रहने को कहा ताकि वह अपनी भावनाओं पर काबू पा सके। केकड़ा उसे ढांढस बंधाते हुए चुप बैठ गया। इस बीच धूर्त सारस ने ऐसा अभिनय किया मानो वास्तव में अपनी भावनाओं को काबू में कर रहा हो। फिर बोला, ‘‘शायद तुम नहीं जानते कि इस नदी के प्राणियों पर कैसी घोर आपदा आने वाली है, सब के सब मारे जाएंगे। नदी का पानी खत्म होने वाला है।’’
‘‘क्या ?’’ सुनकर केकड़ा हैरान रह गया।
‘‘हां।’’ सारस बोला, ‘‘मुझे एक ज्योतिषी ने बताया है कि शीघ्र ही यह नदी सूख जाएगी और इसमें रहने वाले सभी जलचर मारे जाएंगे। ऐसी दुखद भविष्यवाणी सुनकर तो मेरा हृदय ही कांप उठा है।’’
फिर कुछ देर ठहरकर सारस आगे बोला, ‘‘यहां से कुछ ही दूरी पर एक झील है। बड़े जलजीव, जैसे मगर, कछुए व मेढक इत्यादि तो खुद ही चलकर वहां पहुंच सकते हैं। लेकिन मुझे मछलियों जैसे उन जीवों की चिन्ता सता रही है जो चलना जानते ही नहीं। बिना पानी के तो वे निश्चय ही मर जाएंगे। यही कारण है कि मैं इतना उदास व दुखी हूं, मैं उनकी सहायता करना चाहता हूं।’’
यह खबर सुनकर जलचर सन्न रह गए। लेकिन वे यह सोचकर खुश भी थे कि उनकी मदद को सारस वहां आ चुका है।
तभी सारस बोला, ‘‘यहां से कुछ दूर पानी से लबालब भरी एक बहुत बड़ी झील है। मैं सभी असहाय जीवों को अपनी पीठ पर बैठाकर वहां ले जाऊंगा। और उन्हें सुरक्षित उस झील में छोड़ दूंगा।’’
सारस के इस प्रस्ताव पर सभी जलचरों ने हामी भर दी। उधर सारस भी अपनी कुटिल योजना पर अमल करने को तैयार था। पहल उसने मछलियों से की और उन्हें पीठ पर लादकर ले चला। लेकिन उन्हें झील तक पहुंचाने के बजाय एक पहाड़ी के पीछे गया और मछलियों को मारकर खा लिया।
इस प्रकार प्रतिदिन सारस अनेक मछलियों को अपना आहार बना लेता था।
कुछ ही दिनों में उसकी सेहत सुधर गई और वह हट्टा-कट्टा हो गया।
एक दिन केकड़ा बोला सारस से, ‘‘मित्र लगता है तुम मुझे भुला चुके हो। मेरा तो विचार था कि उस झील तक जाने वालों में मेरा नंबर पहला होगा। लेकिन अब मुझे लगता है कि तुम्हें मेरा जरा भी ख्याल नहीं।’’
‘‘नहीं, मैं तुम्हें कतई भूला नहीं हूं।’’ सारस धूर्तता भरे स्वर में बोला। वह भी रोज-रोज मछलियां खाते-खाते ऊब चुका था, वह इसमें बदलाव चाहता था। अतः वह केकड़े से बोला, ‘‘गुस्सा थूक दो मित्र ! आओ मेरी पीठ पर बैठ जाओ।’’
प्रसन्न केकड़ा सवार हो गया सारस की पीठ पर और सारस चल दिया झील की ओर।
सारस की गतिविधियां केकड़े को पहले दिन से ही संदिग्ध प्रतीत होने लगी थीं; और आज केकड़े को लग रहा था उसका संदेह तनिक भी गलत न था।
जब चलते हुए काफी देर हो गई तो केकड़े ने पूछा, ‘‘अभी कितनी दूर है वह झील ?’’
सारस ने सोचा कि केकड़ा चुप रहने वाला सीधा-सा प्राणी है और उसके कुटिल इरादों को कभी जान नहीं पाएगा। अतः वह गुस्से में बोला, ‘‘मूर्ख प्राणी ! तुम क्या समझते हो कि मैं तुम्हारा नौकर हूं। यहां आसपास कोई दूसरी झील नहीं है। मेरी यह योजना तो तुम सभी को अपना आहार बनाने के लिए थी। अब तुम भी तैयार हो जाओ मरने को।’’
यह सुनकर भी केकड़े ने धैर्य नहीं गंवाया। तुरंत उसने अपने तीखे पंजे सारस की गरदन पर गड़ा दिए और उससे नदी की ओर लौट चलने को कहा। उसने यह भी कहा कि यदि उसने ऐसा न किया तो वह अपने तीखे पंजों से उसकी गरदन तोड़ देगा।
अब नदी की ओर लौट चलने के सिवाय सारस के पास और कोई रास्ता न था। नदी किनारे पहुंचते ही केकड़ा उछलकर सारस की पीठ पर से उतरा और नदी के शेष बचे जीवों को सारस की कारस्तानी से अवगत कराया। सुनकर सभी को गुस्सा आ गया और उन्होंने आक्रमण कर सारस को मार डाला।
सीख-लालच बुरी बला है।
एक दिन वह स्वयं को बहुत भूखा महसूस कर रहा था, क्योंकि पिछले कुछ दिनों से उसे खाने को कुछ भी न मिला था। निराश होकर वह नदी किनारे बैठ गया और लगा रोने। एक केकड़ा वहां से गुजर रहा था। उसने सारस को रोते देख कारण पूछा।
तभी अचानक सारस के दिमाग में एक विचार कौंधा। उसने केकड़े को कुछ देर शांत रहने को कहा ताकि वह अपनी भावनाओं पर काबू पा सके। केकड़ा उसे ढांढस बंधाते हुए चुप बैठ गया। इस बीच धूर्त सारस ने ऐसा अभिनय किया मानो वास्तव में अपनी भावनाओं को काबू में कर रहा हो। फिर बोला, ‘‘शायद तुम नहीं जानते कि इस नदी के प्राणियों पर कैसी घोर आपदा आने वाली है, सब के सब मारे जाएंगे। नदी का पानी खत्म होने वाला है।’’
‘‘क्या ?’’ सुनकर केकड़ा हैरान रह गया।
‘‘हां।’’ सारस बोला, ‘‘मुझे एक ज्योतिषी ने बताया है कि शीघ्र ही यह नदी सूख जाएगी और इसमें रहने वाले सभी जलचर मारे जाएंगे। ऐसी दुखद भविष्यवाणी सुनकर तो मेरा हृदय ही कांप उठा है।’’
फिर कुछ देर ठहरकर सारस आगे बोला, ‘‘यहां से कुछ ही दूरी पर एक झील है। बड़े जलजीव, जैसे मगर, कछुए व मेढक इत्यादि तो खुद ही चलकर वहां पहुंच सकते हैं। लेकिन मुझे मछलियों जैसे उन जीवों की चिन्ता सता रही है जो चलना जानते ही नहीं। बिना पानी के तो वे निश्चय ही मर जाएंगे। यही कारण है कि मैं इतना उदास व दुखी हूं, मैं उनकी सहायता करना चाहता हूं।’’
यह खबर सुनकर जलचर सन्न रह गए। लेकिन वे यह सोचकर खुश भी थे कि उनकी मदद को सारस वहां आ चुका है।
तभी सारस बोला, ‘‘यहां से कुछ दूर पानी से लबालब भरी एक बहुत बड़ी झील है। मैं सभी असहाय जीवों को अपनी पीठ पर बैठाकर वहां ले जाऊंगा। और उन्हें सुरक्षित उस झील में छोड़ दूंगा।’’
सारस के इस प्रस्ताव पर सभी जलचरों ने हामी भर दी। उधर सारस भी अपनी कुटिल योजना पर अमल करने को तैयार था। पहल उसने मछलियों से की और उन्हें पीठ पर लादकर ले चला। लेकिन उन्हें झील तक पहुंचाने के बजाय एक पहाड़ी के पीछे गया और मछलियों को मारकर खा लिया।
इस प्रकार प्रतिदिन सारस अनेक मछलियों को अपना आहार बना लेता था।
कुछ ही दिनों में उसकी सेहत सुधर गई और वह हट्टा-कट्टा हो गया।
एक दिन केकड़ा बोला सारस से, ‘‘मित्र लगता है तुम मुझे भुला चुके हो। मेरा तो विचार था कि उस झील तक जाने वालों में मेरा नंबर पहला होगा। लेकिन अब मुझे लगता है कि तुम्हें मेरा जरा भी ख्याल नहीं।’’
‘‘नहीं, मैं तुम्हें कतई भूला नहीं हूं।’’ सारस धूर्तता भरे स्वर में बोला। वह भी रोज-रोज मछलियां खाते-खाते ऊब चुका था, वह इसमें बदलाव चाहता था। अतः वह केकड़े से बोला, ‘‘गुस्सा थूक दो मित्र ! आओ मेरी पीठ पर बैठ जाओ।’’
प्रसन्न केकड़ा सवार हो गया सारस की पीठ पर और सारस चल दिया झील की ओर।
सारस की गतिविधियां केकड़े को पहले दिन से ही संदिग्ध प्रतीत होने लगी थीं; और आज केकड़े को लग रहा था उसका संदेह तनिक भी गलत न था।
जब चलते हुए काफी देर हो गई तो केकड़े ने पूछा, ‘‘अभी कितनी दूर है वह झील ?’’
सारस ने सोचा कि केकड़ा चुप रहने वाला सीधा-सा प्राणी है और उसके कुटिल इरादों को कभी जान नहीं पाएगा। अतः वह गुस्से में बोला, ‘‘मूर्ख प्राणी ! तुम क्या समझते हो कि मैं तुम्हारा नौकर हूं। यहां आसपास कोई दूसरी झील नहीं है। मेरी यह योजना तो तुम सभी को अपना आहार बनाने के लिए थी। अब तुम भी तैयार हो जाओ मरने को।’’
यह सुनकर भी केकड़े ने धैर्य नहीं गंवाया। तुरंत उसने अपने तीखे पंजे सारस की गरदन पर गड़ा दिए और उससे नदी की ओर लौट चलने को कहा। उसने यह भी कहा कि यदि उसने ऐसा न किया तो वह अपने तीखे पंजों से उसकी गरदन तोड़ देगा।
अब नदी की ओर लौट चलने के सिवाय सारस के पास और कोई रास्ता न था। नदी किनारे पहुंचते ही केकड़ा उछलकर सारस की पीठ पर से उतरा और नदी के शेष बचे जीवों को सारस की कारस्तानी से अवगत कराया। सुनकर सभी को गुस्सा आ गया और उन्होंने आक्रमण कर सारस को मार डाला।
सीख-लालच बुरी बला है।
मूर्ख सियार
किसी गांव में दो भारी-भरकम सांड़ रहते थे। गांव घने जंगल के एक छोर पर
बसा हुआ था। एक दिन न जाने किस बात को लेकर गांव की सीमा के बाहर दोनों
सांड़ों में भयंकर लड़ाई छिड़ गई। सींग से सींग जोड़कर दोनों घंटों आपस
में लड़ते रहे। फिर वे अलग हुए और कुछ दूर पीछे हटकर पूरी ताकत से एक
दूसरे से आ टकराए। इतनी बुरी तरह लड़ रहे थे दोनों कि लहूलुहान हो चुके थे
और उनके सिरों से खून टपक रहा था। परंतु उन्होंने लड़ना नहीं छोड़ा।
उनके लड़ते समय इतनी भयंकर आवाजें व शोर उत्पन्न हो रहा कि बहुत से जानवर वहां आसपास एकत्र हो गए थे।
एक सियार भी घनी झाड़ियों के पीछे छिपा यह खूनी युद्ध देख रहा था। जब उसने दोनों सांड़ों का खून जमीन पर टपकता देखा तो उसे चाटने के लिए झाड़ियों से बाहर निकल आया। बिना आगा-पीछा विचारे सियार उन दोनों साड़ों के बीच जा पहुंचा और लगा खून चाटने।
इधर ऐसा लग रहा था कि उन दोनों सांड़ों में किसी ने हार नहीं मानी है। वे अपनी शक्ति बटोरते हुए एक दूसरे पर वार करने का मौका तलाश रहे थे। मूर्ख व लालची सियार को तो जैसे इससे कोई मतलब ही न था। वहां मौजूद अन्य जानवर भी हैरानी से उसे देख रहे थे कि क्यों जरा सा खून चाटने के लोभ में सियार मौत के मुंह में जा बैठा है।
अभी वह मजे लेकर खून चाट ही रहा था कि सांड़ एक बार फिर से पीछे की ओर हटे और पूरी ताकत से एक दूसरे की ओर दौड़े दोनों ने अपने सिर आपस में टकरा दिए और बेचारा सियार उनके बीच फंसकर दम तोड़ बैठा।
सीख-लालच में पकड़कर होश गंवाना ठीक नहीं।
उनके लड़ते समय इतनी भयंकर आवाजें व शोर उत्पन्न हो रहा कि बहुत से जानवर वहां आसपास एकत्र हो गए थे।
एक सियार भी घनी झाड़ियों के पीछे छिपा यह खूनी युद्ध देख रहा था। जब उसने दोनों सांड़ों का खून जमीन पर टपकता देखा तो उसे चाटने के लिए झाड़ियों से बाहर निकल आया। बिना आगा-पीछा विचारे सियार उन दोनों साड़ों के बीच जा पहुंचा और लगा खून चाटने।
इधर ऐसा लग रहा था कि उन दोनों सांड़ों में किसी ने हार नहीं मानी है। वे अपनी शक्ति बटोरते हुए एक दूसरे पर वार करने का मौका तलाश रहे थे। मूर्ख व लालची सियार को तो जैसे इससे कोई मतलब ही न था। वहां मौजूद अन्य जानवर भी हैरानी से उसे देख रहे थे कि क्यों जरा सा खून चाटने के लोभ में सियार मौत के मुंह में जा बैठा है।
अभी वह मजे लेकर खून चाट ही रहा था कि सांड़ एक बार फिर से पीछे की ओर हटे और पूरी ताकत से एक दूसरे की ओर दौड़े दोनों ने अपने सिर आपस में टकरा दिए और बेचारा सियार उनके बीच फंसकर दम तोड़ बैठा।
सीख-लालच में पकड़कर होश गंवाना ठीक नहीं।
सुनहरी चिड़िया और राजा
बहुत पुरानी बात है।
एक घने जंगल में सिंधुका नाम की एक चिड़िया रहती थी। वह सोने के अंडे दिया करती थी।
एक दिन चिड़ियों का शिकार करने के लिए एक बहेलिया उधर आ निकला और पहुंच गया उसी पेड़ के पास, जिस पर सिंधुका का बसेरा था। बेहेलिए ने चिड़िया को सोने के अंडे देते देखा तो उसे पकड़ लिया और अपने घर लौट गया। लेकिन उस चिड़िया को घर में रखते उसे कुछ भय-सा लगा।
उसने सोचा, चिड़िया रोज सोने का अंडा देगी और जल्दी ही वह बेहद धनी हो जाएगा। तब राजा सोचेगा कि वह लोगों की धन-सम्पत्ति चुराकर धनी बना है। हो सकता है राजा उसे कारावास में डाल दे। अतः अच्छा तो यही होगा कि वह इस अद्भुत चिड़िया को राजा को भेंट कर दे।
बस, यही सोचकर उस बहेलिए ने चिड़िया राजा को भेंट कर दी। राजा ऐसी अद्भुत चिड़िया पाकर बेहद खुश हुआ। उसने अपने सेवकों को आज्ञा दी कि उस चिड़िया का पूरा-पूरा ध्यान रखें ताकि वह ज्यादा-से-ज्यादा सोने के अंडे दे सके।
राजा का ऐसा सोचना था कि जब उसके पास बहुत सारा सोना हो जाएगा, तो उसकी शक्ति बढ़ जाएगी और आसपास के राजा उसका भय खाने लगेंगे।
सेवकों ने तब राजा से कहा, ‘‘महाराज ! यह सब बकवास है। कोई चिड़िया भला सोने के अंडे कैसे दे सकती है ?’’
यह सुनकर राजा के मन में संदेह के सर्प ने फन उठाया और उसने सेवकों से कहा कि चिड़िया को ले जाकर जंगल में छोड़ आओ।
सेवकों ने राजा की आज्ञा का पालन किया।
इधर सिंधुका चिड़िया आकाश में उन्मुक्त विचरण करती सोच रही थी, ‘मुझे तो यह मूर्खों की नगरी लगती है। बहेलिया जानता था कि मैं सोने के अंडे देती हूं, फिर भी उसने मुझे राजा को सौंप दिया। और राजा तो महामूर्ख निकला, उसने मुझे सेवकों के हाथों सौंप दिया। सेवकों ने भी मेरी वास्तविकता पर विश्वास नहीं किया और राजा के मन में संदेह भर दिया। लेकिन सबसे बड़ी मूर्खता तो मैं हूं, जो बहेलिए के जाल में जा घुसी।’’
सीख-वास्तविकता की परख करने के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए।
एक घने जंगल में सिंधुका नाम की एक चिड़िया रहती थी। वह सोने के अंडे दिया करती थी।
एक दिन चिड़ियों का शिकार करने के लिए एक बहेलिया उधर आ निकला और पहुंच गया उसी पेड़ के पास, जिस पर सिंधुका का बसेरा था। बेहेलिए ने चिड़िया को सोने के अंडे देते देखा तो उसे पकड़ लिया और अपने घर लौट गया। लेकिन उस चिड़िया को घर में रखते उसे कुछ भय-सा लगा।
उसने सोचा, चिड़िया रोज सोने का अंडा देगी और जल्दी ही वह बेहद धनी हो जाएगा। तब राजा सोचेगा कि वह लोगों की धन-सम्पत्ति चुराकर धनी बना है। हो सकता है राजा उसे कारावास में डाल दे। अतः अच्छा तो यही होगा कि वह इस अद्भुत चिड़िया को राजा को भेंट कर दे।
बस, यही सोचकर उस बहेलिए ने चिड़िया राजा को भेंट कर दी। राजा ऐसी अद्भुत चिड़िया पाकर बेहद खुश हुआ। उसने अपने सेवकों को आज्ञा दी कि उस चिड़िया का पूरा-पूरा ध्यान रखें ताकि वह ज्यादा-से-ज्यादा सोने के अंडे दे सके।
राजा का ऐसा सोचना था कि जब उसके पास बहुत सारा सोना हो जाएगा, तो उसकी शक्ति बढ़ जाएगी और आसपास के राजा उसका भय खाने लगेंगे।
सेवकों ने तब राजा से कहा, ‘‘महाराज ! यह सब बकवास है। कोई चिड़िया भला सोने के अंडे कैसे दे सकती है ?’’
यह सुनकर राजा के मन में संदेह के सर्प ने फन उठाया और उसने सेवकों से कहा कि चिड़िया को ले जाकर जंगल में छोड़ आओ।
सेवकों ने राजा की आज्ञा का पालन किया।
इधर सिंधुका चिड़िया आकाश में उन्मुक्त विचरण करती सोच रही थी, ‘मुझे तो यह मूर्खों की नगरी लगती है। बहेलिया जानता था कि मैं सोने के अंडे देती हूं, फिर भी उसने मुझे राजा को सौंप दिया। और राजा तो महामूर्ख निकला, उसने मुझे सेवकों के हाथों सौंप दिया। सेवकों ने भी मेरी वास्तविकता पर विश्वास नहीं किया और राजा के मन में संदेह भर दिया। लेकिन सबसे बड़ी मूर्खता तो मैं हूं, जो बहेलिए के जाल में जा घुसी।’’
सीख-वास्तविकता की परख करने के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए।
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